Sant siromani Kabir das (Kabirdas) biography information life History in Hindi | संत सिरोमणि कबीरदास का सम्पूर्ण जीवन परिचय और इतिहास
कबीरदास (Kabir Das) मध्यकालीन भारत के एक प्रसिद्ध संत कवि और समाज सुधारक थे| 8वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य में भक्ति आन्दोलन में इन्होने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई|
कबीरदास (kabirdas) जी की भूमिका भक्ति आन्दोलन में इसलिए और प्रमुख हो जाती है क्योंकि इन्होने हिन्दू धर्म में व्याप्त जाती पाती के भेदभाव का विरोध तो किया ही|
अपितु हिन्दू और मुस्लिम के मध्य व्याप्त नफरत को भी कम करने का प्रयास किया| कबीर दास के मानने वालों में सभी धर्म के लोग थे|
यदि सत्य कहा जाए, संत कबीरदास (Sant Kabir Das) ने कभी कहाँ ही नहीं की में हिंदू हूँ या मुसलमान या किसी और धर्म से मेरा ताल्लुक है| हमारे कबीर जी सिर्फ, प्रेम और मानवता के धागे से अपने अनुयाइयों और मानने वालों से जुड़े हुए थे|
कबीर दास जी कहते हैं:-
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान”
कबीर दास जी कहते हैं जाती और धर्म में क्या रखा है, साधू (सज्जन) के ज्ञान का मोल है, जैसे तलवार का मूल्य होता है न की उसकी म्यान का|
कबीर दास जी के लिए किसी भी धर्म से ऊपर प्रेम और मानवता का धर्म था| और यही उनके द्वारा लिखे गए दोहों में भी देखने को मिलता है|
प्रभु कबीर दास जी लिखते हैं
“पोथी पढी पढी जग मुवा पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय”
अर्थार्थ, मोटी मोटी किताबें पढ़कर कभी कोई ज्ञानी नहीं हुआ, लेकिन प्रेम का अर्थ कोई समझ ले तो वो परम ज्ञानी हो जाएगा|
Kabir Das Biography in Hindi
कबीरदास जी का जीवन परिचय और इतिहास
S.N | Paticular | Detail |
नाम | संत कबीरदास | |
जन्म | 1398 | |
जन्मस्थान | लहरतारा ताल काशी (बनारस) | |
पिता | नीरू | |
माता | नीमा | |
पत्नी का नाम | लोई | |
पुत्र | कमाल | |
पुत्री | कमाली | |
भूमिका | समाज सुधारक, कवि, | |
जाति | जुलाहे | |
कर्म | सूत काटना, कपडा बुनना | |
कर्म भूमि | बनारस | |
मुख्य रचनाएं | साखी, रमैनी, सबद | |
भाषा | अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी | |
म्रत्यु | 1518 | |
म्रत्यु स्थान | मगहर, उत्तर प्रदेश |
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कबीर दास जी का प्रारंभिक जीवन:-
संत कबीरदास जी (Sant Kabir Das) का जन्म कब हुआ इसके बारे में कोई ठोस साक्ष्य नहीं है| इतिहासकार इस पर अपनी अलग अलग राय रखते हैं|
कुछ इतिहासकारों का मानना है की इनका जीवन समय 1398 – 1448 था और कुछ 1440-1518 बताते हैं|
इतिहासकारों का इनके जन्म के बारे में अलग अलग मत है| एक मत के अनुसार इनकी माता ब्राह्मण थी| जन्म के बाद ही इनकी माता ने, किसी कारण वश इन्हें लकड़ी की टोकरी में लहरतरा तालाब के पास छोड़ के चली गई|
एक गरीब मुस्लिम परिवार को यह इसी लहरतला तालाब काशी में मिले और इसी मुस्लिम परिवार ने इन्हें पाल पोस कर बड़ा किया| इनके पिता एक जुलाहे जाती से थे|

कवीर दास जी (Kabir Das Ji) इस दोहे में भी अपने आपको जुलाहे के रूप में बताते भी हैं|
“जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।’
एक दुसरे मत,जो की एक विदेशी इतिहासकार ‘Endy Doniger ने दिया था’ के अनुसार इनका जन्म एक मुस्लिम जुलाहे परिवार में ही हुआ था और इसी परिवार में इनका पालन पोषण हुआ |
एक और इतिहासकार ‘Charlotte Vaudeville’ के अनुसार कबीर के माता पिता पहले हिन्दू थे और हालही में मुसलमान धर्म में आये थे
इनके अनुसार इनके माता पिता का सम्बन्ध शैव (जो शिव को मानते हैं) सम्प्रदाय से हो सकता है| इनके परिवार को मुस्लिम रीती रिवाजों की इतनी जानकारी नहीं थी|
इसलिए इनके परिवार के जीवन यापन और रहन सहन में हिन्दू धर्म की झलक थी और हिन्दू धर्म का यही प्रभाव कबीर के पहनाव उडाव और अचार विचार में देखने को मिलता था|
संत कबीर दास जी का वैवाहिक जीवन
कबीरदास जी (Kabir Das Ji) का विवाह हुआ या नहीं हुआ इसके बारे में भी इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं|
एक मत कहता है की इनका विवाह हुआ था और इनकी पत्नी का नाम धनिया था| कबीरदास जी के दो सन्तान भी थी पुत्र का नाम कमल और पुत्री का नाम कमली था|
यह माना जाता है की कबीर दास का परिवार वाराणसी में कबीर चोराहे पर रहा करता था| इसी चोराहे के पास एक जगह है नीरू टीला| इसी जगह पर इनके माता पिता नीमा और नीरू की कब्रे बनी हुई हैं|
एक दूसरा मत यह भी कहता है, कबीरदास जी ता उम्र अविवाहित ही रहे| इनके अनुयायी (कबीर पंथी) मानते हैं की इन्होने कभी विवाह किया ही नहीं|
संत कबीरदास जी के गुरु और दीक्षा
ऐसा माना जाता है की संत रामानंद कबीर के गुरु थे| रामानंद वैष्णव सम्प्रदाय के संत थे और भगवान् राम को अपना ईष्ट देवता मानते थे|
इनका मत था भगवान् राम ही सर्वोपरि हैं और भगवान् विष्णु के अवतार है|
इसके अदि शंकारचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धांत में इनका विश्वास था| अद्वैतवाद के अनुसार जीव(आत्मा) और ब्रह्म(परमात्मा) अलग अलग नहीं हैं|
दोनों एक ही है| और सभी आत्मा ब्रह्म है केवल आत्मसाक्षात्कार का फर्क है|
प्रारंभ में रामानंद ने कबीर को शिष्य बनाने से साफ़ साफ़ इनकार कर दिया था| लेकिन कबीर भी जिद्दी थे | गुरु रामानन्द के द्वारा कबीर को शिष्य बनाने के संधर्व में एक कहानी प्रचलित है|
कबीरदास जी (Kabir Das Ji) को पता था की गुरु रामानंद सूर्यास्त से पहले गंगा स्नान करने आते हैं| वहीँ कबीर दास घाट की सीढियों पर छुप कर लेट गए|
रामानंद का पैर कबीर दास को लगा और अनायास ही रामानंद के मुख से राम राम निकला| और कबीर दास ने उनके चरण छुए और रामानंद के द्वारा बोला गया राम के नाम को गुरु मन्त्र मानकर रामानंद जी को अपना गुरु मान लिया|
रामानंद जी भी कबीर के समर्पण और भक्ति से बहुत प्रभावित हुए और इन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया|
इन्होने श्री राम के नाम का प्रयोग अपने दोहों में कई जगह किया भी है|
कबीर दास जी कहते हैं
“हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया’,`हरि जननी मैं बालक तोरा”
कबीरदास जी की धर्म की व्याख्या
संत सिरोमणि कबीर दास जी, किसी भी प्रकार के धार्मिक आडम्बर, तंत्र मन्त्र, हवन पूजा पाठ के घोर विरोधी थे इतना ही नहीं मुस्लिम धर्म में पांच वक्त की नमाज़ और अन्य आडम्बरों का भी विरोध किया|
कबीर दास जी लिखते हैं
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।
कबीर दास जी (Kabir Das Ji) ने भगवान् के निर्गुण (formless) स्वरुप की भक्ति को प्राथमिकता दी| और बताया की इस निर्गुण ईश्वर को भजन कीर्तन दया प्रेम और श्रद्धा समर्पण (Devotion) के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है|
कबीर दास जी सूफी इस्लाम के कब्बालों और हिन्दू धर्म के अपने अनुयायियों के साथ मिलकर भगवत चर्चा भी किया करते थे|
मध्यकालीन भारत में मुस्लिम और हिन्दुओं के बीच बढती हुई धार्मिक और सामाजिक दूरी को कबीरदास जी ने कम करने में सफलता पाई|
कबीरदास ने दोनों धर्म के अनुयाइयों के लिए धर्म का एक माध्यम मार्ग सुझाया| आगे चलकर इनके अनुयायियों को कबीर पंथी कहा गया और एक ने सम्प्रदाय कबीर पंथ की स्थापना हुई|
कबीरदास जी की रचनाएँ
कबीर की रचनाएँ स्थानीय हिंदी भाषा में थी, इनकी रचनाओं में अवधी, ब्रज, और भोजपुरी भाषाओँ का प्रभाव था| इनके द्वारा लिखी गई रचनाओं को इनके भक्त कबीर बाणी के नाम से बोलते हैं|
इन रचनाओं में भक्ति गीत, दोहे, श्लोक और सखी का संग्रह था| कबीर दास जी के द्वारा लिखे गए दोहे और गीत भगवान् के भक्ति, मानव जीवन के विभिन पहलुओं पर आधारित थे|
कबीर दास जी (Kabir Das Ji) का ज्यादातर कार्य भक्ति, रहस्यवाद और अनुशासन पर आधारित था|
कबीरदास जी की रचनाओं का संग्रह विभिन्न ग्रंथों में देखने को मिलता है| इन ग्रंथों में कबीर बीजक (Kabir Bijak), कबीर पाराचाई (Kabir Parachai), सखी ग्रन्थ (Sakhi Granth), आदि ग्रन्थ (Adi Granth) (सिक्ख) और कबीर ग्रंथावली (Kabir Granthavali) (राजस्थान) प्रमुख है|
कबीरदास जी की कविताओं का पहली बार 17वी शताव्दी में लिखित संग्रह किया गया| कई इतिहासकारों का मानना है की इन ग्रंथों में लिखी गई सभी कवितायें और दोहे कबीर के नहीं हैं|
समय के साथ इनके प्रसंशकों ने अपनी तरफ से और दोहें और रचनाएँ इसमें जोड़ दी होंगी| कबीर बीजक का 20वी सदी में फ्रांस के एक विद्वान ‘Charlotte Vaudeville’ ने अनुवाद भी किया था|
कबीरदास और रविंद्रनाथ टैगोर
1915 में रविन्द्रनाथ टैगोर ने कबीरदास जी की करीब 100 कविताओं और दोहों का अंग्रेजी में अनुवाद किया| इस कलेक्शन को पश्चिमी देशों में खूब पसंद किया गया|
इतिहासकारों का मानना था की इन कविताओं में सिर्फ 6 कवितायेँ ही ओरिजिनल थी| बाकी कविताएँ वैसे तो भक्ति मूवमेंट के समय की ही लिखी हुई थी लेकिन किसी और संत की हो सकती हैं|
कबीर मठ

कबीर मठ वाराणसी के कबीर चौरा पर स्थित है| यह स्थान अब कबीर की शिक्षा को सीखने का स्थल है| यहाँ कबीर के धर्म को समझने के लिए दूर दूर से विद्वान आते हैं और यही ठहरते हैं|
सिद्दपीठ कबीरचौरा मठ मुलगडी और इसकी परम्परा
सिद्धपीठ कबीरचौरा मठ कबीर दास जी का घर था| मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में सभी संतों में कबीर दास जी को ‘सब संतन सरताज’ बोला जाता है यानि सभी संतों में सबसे ऊपर|
सिद्धपीठ कबीरचौरा भारत के सभी संतों के लिए अध्यात्मिक केंद्र है| पूरे भारत से धार्मिक लोग इस जगह आते रहे हैं|
कबीर दास जी की कुछ ख़ास वस्तुएं जैसे सिलाई मशीन, खडाऊ, रुद्राक्ष की माला, त्रिशूल और दूसरी चीजे यहाँ सुरक्षित हैं|
ऐतिहासिक कुआँ और सर्वानन्द
कबीर मठ में एक कुआँ है इसके पानी को अमृत रस कहा जाता है| इस कुए के पानी का महत्व पहली बार सर्वानन्द ने पाया|
सर्वानन्द दक्षिण भारत के रहने वाले थे| इन्होने कबीर दास जी का बहुत नाम सुना था इसलिए इनसे धर्म पर बहस करने के लिए ये वाराणसी आये|
इनको तेज प्यास लगी थी इन्होने इसी कुए का पानी पीया और कबीर दास से मिलने पहुँच गए|
कबीर दास जी ने जब इनका औचित्य पूछा तो बिना चर्चा किये ही अपनी हार स्वीकार कर ली और एक कागज पर लिखित में भी दे दिया|
जब सर्वानन्द वापस अपने घर पहुंचे और अपने सगे सम्बन्धियों को वो कागज दिखने लगे तो उसमे लिखा हुआ था की कबीर दास जी ने इस धार्मिक बहस में जीत हांसिल की है|
यह सब चमत्कार देख कर सर्वानन्द कबीर दास जी से बहुत प्रभावित हुए और वाराणसी जाकर इनके शिष्य बन गए और कभी आगे जीवन में किसी भी किताब और धर्म ग्रन्थ को हाथ तक नहीं लगाया|
आगे जाके सर्वानन्द ही आचार्य सुर्तिगोपाल साहब के नाम से प्रसिद्द हुए और कबीर मठ के कबीर दास के बाद उत्तराधिकारी बने|
बीजक मंदिर कबीर चबूतरा
यह स्थान कबीरदास जी का साधना स्थल था| इसी जगह पर कबीर दास जी अपने शिष्यों को ज्ञान कर्म और मानवता की सिक्षा दिया करते थे|
इस जगह का नाम कबीर चबूतरा था| बीजक कबीर दास जी की कविताओं का संग्रह है इसलिए इनके शिष्यों ने इस जगह का नाम बाद में बीजक मंदिर रख दिया|
“Kabir teri jhopadi, galkatto ke pas.
Jo karega so bharega, tum kyon hot udas”
कबीर दास जयंती तारीख 2019
इतिहासकार मानते हैं कबीर दास का जन्म 1440 में हिन्दू कैलेंडर के अनुसारज्येष्ठ माह शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को हुआ था|
अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मई या जून के महीने में कबीर दास जी की जयंती मनाई जाती है
2019 में 16 जून सन्डे को कबीर दास जयंती मनाई जाएगी| कबीर दास जी का यह लगभग 642वा जन्मदिन मनाया जाएगा|
पूर्णिमा तिथि शुरू = 04:31 on 16/jun/2019
पूर्णिमा तिथि समाप्त = 04:30 on 17/Jun/2019
कबीर दास और संत गोस्वामी
एक बार की बात है कबीर दास जी (Kabir Das ji) यात्रा करते हुए पिथोराबाद पहुंचे वहां रामकृष्ण का छोटा सा एक मंदिर था| वहां
के संत भगवान् गोस्वामी थे जो एक जिज्ञासु साधक थे|
उन्होंने शास्त्रों और वेदों का भली भांति अध्यन किया था लेकिन मन में फिर भी बहुत से सवाल थे| संत कबीर से उनकी मुलाकात हुई, कबीर ने अपनी एक सखी में उनका सारा संशय दूर कर दिया|
कबीर दास जी ने कहा
`बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।’
अर्थार्थ जैसे वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोदे गुए गड्डे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे वही हाल
तुम्हारा है|
तुमने भगवत प्राप्ति के लिए घर छोड़ा लेकिन तुम यहाँ हरिव्यासी संप्रदाय के गड्डे में फँस गए हो तुम अपनी व्यथा किस्से कहोगे|
अर्थार्थ कबीर दास जी (Kabir Das ji) के मुताबिक सिर्फ प्रेम और भक्ति ही एक मात्र साधन है भगवत प्राप्ति का
कबीरदास की म्रत्यु
कबीरदास की म्रत्यु लखनऊ से करीब 240 किलोमीटर[ दूर मगहर में हुई थी| इन्होने यह स्थान सोच समझ कर चुना था| इसके पीछे कई कारण प्रचलित हैं|
पहला कारण यह था मगहर के बारे में ऐसी कहावतों की अफवाह थी की इस जगह जो जन्म लेता है या म्रत्यु को प्राप्त करता हैं वह कभी भी स्वर्ग प्राप्ति नहीं कर सकता|
कबीर दास जी लोगों में फेले हुए इस अंधविश्वास को दूर करना चाहते थे|
दूसरा कारण यह माना जाता है की यह प्रथा प्रचलित थी की जो काशी में म्रत्यु को प्राप्त करता है वो सीधा वैकुंठ (स्वर्ग) में चला जाता है|
कबीर दास जी (Kabir Das ji) का तर्क था की यदि काशी में म्रत्यु मात्र से ही मोक्ष मिल जाता है तो ज्ञान प्राप्त करने की जरुरत क्या है|
इसलिए इन्होने काशी के बहार जाकर अपना शारीर त्यागने का निर्णय लिया|
कबीर दास जी लिखते हैं
“जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।”
कबीर दास जी अंधविश्वास और रूडीवादिता के घोर विरोधी थे|
लेकिन कबीर मगहर जाकर बहुत दुखी थे| कबीर के द्वारा कहे गए इस दोहे में यह साफ पता चलता है|
“अब कहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।”
माना जाता है 1518 जनवरी के महीने में माघ शुक्ल एकादशी को मगहर में कबीरदास जी ने अपना शरीर त्याग दिया|
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