प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित | Inspirational Sanskrit Shlokas with Hindi meaning
आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः |
आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृशोदयः ||
अर्थात- जैसा उसका शरीर था, वैसी ही उसकी बुद्धि भी थी, जैसी उसकी बुद्धि थी, वैसा ही उसे शास्त्रों का भी ज्ञान था, जैसा उसका शास्त्राभ्यास था, वैसे ही उसके उद्यम भी थे, और जैसे उसके उद्यम थे, वैसी ही उसकी सफलता भी होती है।
न हि कश्चित विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति
अतः श्वः करणीयानी कुर्यादद्यैव बुद्धिमान !!
अर्थ- भविष्य का किसी को पता नहीं, कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है। इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है!
अर्थ : मनुष्य के शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्य का सबसे महान शत्रु होता है, तथा परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता, तथा आलस्य करने वाला व्यक्ति सदैव दुखी रहता है।
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
अर्थ : वैभव और उन्नति चाहने वाले पुरुष को ये छः दोषो का त्याग कर देना चाहिए : नींद, तन्द्रा (ऊंघना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घ शत्रुता (कम समय लगने वाले कार्यो में अधिक समय नष्ट करना)।
ब्राहम्णम् दशवर्षम् तु शतवर्ष तु भूमियम् |
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः ||
अर्थात :- यदि ब्राह्मण दस वर्ष का है,और क्षेत्रिय सौ वर्ष का है,तो इन दोनों के मध्य में ब्राह्मण आयु में अत्यंत छोटा होने पर भी पिता के स्थान वाला है,और सौ वर्ष का क्षत्रिय उस दस वर्षीय बालक के समक्ष पुत्र के स्थान वालावसमझने योग्य है।
ब्राह्मणकुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम् |
वैश्यम् क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ||
अर्थात:- ब्राह्मण को देखकर उससे कुशल पूछो , क्षत्रिय बन्धु से अनामय, वैश्य से क्षेम और शूद्र व्यक्ति से आरोग्य पूछना चाहिए।
इमं लोकं मातृभक्त्या तु मध्यमन् |
गुरुशुश्रूषया त्वेवं ब्रह्मवोकं समश्नुते ||
अर्थात –
मनुष्य अपनी माता की सेवा से भूलोक को, और पिता की सेवा से स्वर्ग लोक को, तथा गुरू की भक्ति सेवा सेवा से बिष्णु लोक को प्राप्त होता है।
सत्य-सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्!!
अर्थ- ईश्वर ही संसार में सत्य है धर्म भी सत्य के ही आश्रित है सत्य ही समस्त भव- विभव का मूल है, सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है!
ते पुत्रा ये पितुभक्ता: स: पिता यस्तु पोषक:
तन्मित्र यत्र विश्वास: सा भार्या या निर्वती !!
अर्थ– बेटा वही होता है जो अपने पिता का भक्त हो, पिता वही है जो पोषक हैं मित्र वही है जो विश्वास योग्य है और पत्नी वही है जो हृदय को सुख देती है!
आचार्यात्पादमादत्ते पादं शिष्यः स्वमेधया
कालेन पादमादत्ते पादं सब्रह्मचारिभिः !!
अर्थ- शिष्य अपने जीवन का एक भाग अपने आचार्य से सीखता है , एक भाग अपनी बुद्धि से सीखता है एक भाग समय से सीखता है तथा एक भाग वह अपने सहपाठियों से सीखता है!
बालः सम्मानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि |
अध्यापयन् गुरूसुतो गुरुवन्भानमर्हति ||
अर्थात – गुरुपुत्र अल्पवयस्क, समानवयस्क हो, अध्ययन करने वाला विद्यार्थी हो, अध्यापन कम करता हो, यज्ञ में प्रवीण ऋत्विक हो या ऋत्विक नही हो, वह सदा सम्मान योग्य होता है।
नास्ति विद्यासमं चक्षुः नास्ति सत्यसमं तपः
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् !!
अर्थ- विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तप नहीं है, राग के समान दुःख नहीं है, और त्याग के समान कोई सुख नहीं है!
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं |
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति ||
अर्थात:- जिस व्यक्ति के पास स्वयं का विवेक नहीं है। शास्त्र उसका क्या करेगा? जैसे नेत्रहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।
लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् |
संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह न शर्मणे ||
अर्थात:- जो पुण्य तप और दान से उत्पन्न होता है,वह परलोक में सुखकारी होता है, और पवित्र वंश की संतति इस लोक और परलोक दोनों में सुख देती है।
यावद्बध्दो मरुद देहे यावच्चित्तं निराकुलम्।
यावद्द्रॄष्टिभ्रुवोर्मध्ये तावत्कालभयं कुत:।।
जब तक शरीर में सांस रोक दी जाती है तब तक मन अबाधित रहता है और जब तक ध्यान दोनों भौहों के बीच लगा है तब तक मृत्यु से कोई भय नहीं है।
यच्छक्यं ग्रसितुं शस्तं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्
हितं च परिणामे यत्तदाद्यं भूतिमिच्छता !!
अर्थ- जो वस्तु खाने योग्य है और खाने पर आसानी से पच जाए और इसका पाचन शरीर के लिए हितकारी हो ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले व्यक्ति को ऐसी वस्तु का ही सेवन करना चाहिए!
शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते !!
अर्थ- मैं दीपक के प्रकाश को प्रणाम करता हूं जो शुभता, स्वास्थ्य और समृद्धि लाता है, जो अनैतिक भावनाओं को नष्ट करता है बार-बार दीपक के प्रकाश को प्रणाम करता हूं!
न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी गृहमुच्यते
गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यं सदृशं मतम् !!
अर्थ- घर को बिना गृहणी के घर नहीं कहा जा सकता। बिना स्त्री के घर जंगल के समान है। गृहणी से ही घर है। इसलिए घर में गृहणी का होना आवश्यक होता है!
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं सहायकृत्।।
अर्थ : उधम (जोखिम लेने वाला व्यक्ति), साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम – यह 6 गुण जिस भी व्यक्ति के पास होते हैं, भगवान भी उसकी मदद करते हैं।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्धर्मो यशो बलम् !!
अर्थ- जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, कृति और बल इन चारों में वृद्धि होती है!
वाणी रसवती यस्य, यस्य श्रमवती क्रिया
लक्ष्मी : दानवती यस्य, सफलं तस्य जीवितं !!
अर्थ- जिस मनुष्य की वाणी (बोली) मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम (मेहनत) से युक्त है, जिसका धन, दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन ही सफल है!
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती
करमूले तु गोविन्द प्रभाते करदर्शनम्!!
अर्थ- इस श्लोक में यह बताया गया है की हमारे हाथो के अग्र भाग में माँ लक्ष्मी निवास करती है, मध्य में माँ सरस्वती और मूल भाग में स्वयं भगवन नारायण (विष्णु) जी विराजते हैं। इसलिए सुबह
उठते ही अपने हाथों का करें करे!
किन्नु हित्वा प्रियो भवति। किन्नु हित्वा न सोचति।।
किन्नु हित्वा अर्थवान् भवति। किन्नु हित्वा सुखी भवेत्।।
अर्थ : मनुष्य किस चीज को छोड़कर प्रिय होता है? कौन सी चीज किसी का हित नहीं सोचती? किस चीज को त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है? तथा किस चीज को त्याग कर सुखी होता है?
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते। जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है।
सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।
यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।
एक विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए। क्योंकि वह फल और छाया से युक्त होता है। यदि किसी दुर्भाग्य से फल नहीं देता तो उसकी छाया कोई नहीं रोक सकता है।
चिंतायाश्च चितायाश्च बिंदुमात्रं विशिष्यते
चिता दहति निर्जीवं चिन्ता दहति जीवनम् !!
अर्थ- चिंता और चिता में केवल एक बिंदु मात्र का फर्क होता है, चीता निर्जीव (जिसमे जीवन नहीं है) को जलाती है जबकि चिंता जीवन को जलाती है!
मानं हित्वा प्रियो भवति। क्रोधं हित्वा न सोचति।।
कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।
अर्थ : अहंकार को त्याग कर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध ऐसी चीज है जो किसी का हित नहीं सोचती। कामेच्छा को त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है तथा लोभ को त्याग कर व्यक्ति सुखी होता है।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।
बिना दया के किये गये काम में कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता जहां दया नहीं होती। वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं।
तदा एव सफलता विषये चिन्तनं कुर्मः
यदा वयं सिद्धाः भवामः!!
अर्थ- तभी सफलता के विषय में चिंतन करे जब आप कार्य करके उसे पूरा कर पाए, वरना बिना कार्य किये सफलता के बारे में सोचना व्यर्थ है!
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ : मनुष्य के शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्य का सबसे महान शत्रु होता है, तथा परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता, तथा आलस्य करने वाला व्यक्ति सदैव दुखी रहता है।
निश्चित्वा यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते।।
जिसके प्रयास एक दृढ़ प्रतिबध्दता से शुरू होते हैं जो कार्य पूर्ण होने तक ज्यादा आराम नहीं करते हैं जो समय बर्बाद नहीं करते हैं और जो अपने विचारों पर नियन्त्रण रखते हैं वह बुद्धिमान है।
कश्चित् कस्यचिन्मित्रं,
न कश्चित् कस्यचित् रिपु:
अर्थतस्तु निबध्यन्ते,
मित्राणि रिपवस्तथा !!
अर्थ- इस संसार में न कोई किसी का मित्र (दोस्त) है न कोई किसी का शत्रु (दुश्मन) है कार्यवश ही लोग एक दूसरे के मित्र और शत्रु बनते हैं!
संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित
निवर्तयत्यन्यजनं प्ररमादतः
स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते
गुणाति तत्त्वं हितमिछुरंगिनाम्
शिवार्थिनां यः स गुरु निर्गघते !!
अर्थ- जो दूसरों को प्रमाद (नशा, गलत काम ) करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते पर चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध (यथार्थ ज्ञान का बोध) कराते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं!
श्रेयःसु गुरुवद्दृत्तिं नित्यमेव समाचरेत् |
गुरुपुत्रेषु चार्येषु रूरोश्चैव स्वबन्धुषु ||
अर्थात:- शिष्य को विद्या और तप के कारण श्रेष्ठ पुरुषों में मन वचन कर्म से उत्तमजनों में, गुरुपुत्रों में और गुरु के बन्धु बान्धवों में सदैव गुरू तुल्य व्यवहार करना चाहिए।
यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा |
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ||
अर्थात:- जिस मनुष्य की वाणी और मन बहुत ही निर्मल एवं नियंत्रित होने के कारण सुरक्षित रहते हैं, वही अवश्यमेव श्रुति वाक्यों में वर्णित आत्मकल्याण रूप परम फल को प्राप्त करता है।
सिंहवत्सर्ववेगेन पतन्त्यर्थे किलार्थिनः॥
Those who intend to get work done cast themselves on the task with all possible speed, like a lion.
ॐ न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते !!
अर्थ- इस सम्पूर्ण संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ भी नहीं है।
पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः |
गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ||
अर्थात – पिता गार्हपत्य अग्नि और माता दक्षिण नाम की अग्नि कही गयी है, तथा आचार्य (गुरु) को आवहनीय अग्नि बताया गया है, इस प्रकार ये तीन अग्नियां अति श्रेष्ठ मानी गयी है।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थ : “यह अपना है”, “वह पराया है” ऐसी सोच छोटे ह्रदय वाले लोगों की होती है। इसके विपरीत बड़े ह्रदय वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण धरती ही उनके परिवार के समान होती है।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा !!
अर्थ- जिनका एक दन्त टुटा हुआ है जिनका शरीर हाथी जैसा विशालकाय है और तेज सूर्य की किरणों की तरह है बलशाली है। उनसे मेरी प्रार्थना है मेरे कार्यों के मध्य आने वाली बाधाओं को सर्वदा दूर करें !
अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनमेव च |
गुरुपत्न्या न कार्याणी केशानां च प्रसाधनम् ||
अर्थात :- शिष्य को गुरु स्त्रियों के शरीर में तेल की मालीश, स्नान कराना, उबटन लगाना, उनके बाल झाडना, या पुष्पादि से श्रृंगार करना इन कार्यों को नहीं करना करना चाहिए।
तयोर्नित्यम् प्रियम् कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा |
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्व समाप्यते ||
अर्थात:- मनुष्य का अपने माता-पिता तथा आचार्य का सदैव प्रिय ही करना चाहिए क्योंकि इन तीनों के प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण तपस्याएं पूर्ण हो जाती है।
यद्यत्संद्दश्यते लोके सर्वं तत्कर्मसम्भवम् |
सर्वां कर्मांनुसारेण जन्तुर्भोगान्भुनक्ति वै ||
अर्थात:- लोगों के बीच जो सुख या दुःख देखा जाता है कर्म से पैदा होता है। सभी प्राणी अपने पिछले कर्मों के अनुसार आनंद लेते हैं या पीड़ित होते हैं।
देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः !!
अर्थ- यदि भाग्य ख़राब हो या रुठ जाए तो गुरु सदैव रक्षा करते हैं। यदि गुरु रुठ जाए तो कोई रक्षा नहीं करता। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है की गुरु ही सच्चा रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है!
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: !!
अर्थ- जिस प्रकार सोये हुए शेर के मुँह में मृग अपने आप प्रवेश नहीं करते बल्कि शेर को मेहनत करनी पड़ती है। ठीक उसी प्रकार मेहनत (उद्यम ) करके हि कार्य सफल होते हैं, नाकि इच्छा से जाहिर करने से!
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम्
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा !!
अर्थ- सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्योंकि वह किसी से हारा नहीं जा सकता उसका मूल्य नहीं हो सकता और उसका कभी नाश नहीं होता ।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि |
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ||
अर्थात:- बिना दया के किये गये काम में कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता जहां दया नहीं होती। वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं।
परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बन्धां च योनितः |
तां ब्रू याद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च ||
अर्थात:- दूसरे की पत्नी के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, इसको स्पष्ट करते है, जो स्त्री पर पत्नी तथा यौन सम्बन्ध से रहित है, उससे सदा सुभागे भगिनी ऐसे शिष्ट शब्दों से वार्ता करनी चाहिए।
तेषां शेयाणां शुश्रूषा परम् तप अच्यते |
न तैरभ्यननुज्ञातो धर्ममन्य समाचरेत् ||
अर्थात :- अपने माता पिता और आचार्य (गुरु) की सेवा करना ही श्रेष्ठ तप बताया गया है, इसीलिए उनकी आज्ञा के बिना मनुष्य को अन्य किसी धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए।
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च |
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कहिंचित् ||
अर्थात:- दूषित हृदय वाले व्यक्ति का वेदाध्ययन, त्याग, यज्ञादि का अनुष्ठान, यम-नियमों का पालन, अभ्यास ये कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करते है।
मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम् |
दम्पत्यो कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ||
अर्थात:- जहाँ पर मूर्खो की पूजा नहीं होती (अर्थात् उनकी सलाह नहीं मानी जाती), धान्य को भलीभाँति संचित करके रखा जाता है और पति पत्नी के मध्य कलह नहीं होता वहाँ लक्ष्मी स्वयं आ जाती हैं।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातन:!!
अर्थ- हमें सदा सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये। प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये यही सनातन धर्म है!
वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी |
एतानी मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ||
अर्थात:- धन, बन्धुभाव, आयु या अवस्था, यज्ञादि कर्म तथा वेद विदधा ये सभी पूज्य स्थान वाले हैं, एवं सम्मान दायक हे, परन्तु इसमें जो-जो बाद के है, वे ही श्रेष्ठ हैं।
कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति |
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ||
अर्थात :- जब तक काम पूरे नहीं होते हैं तब तक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं। काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है।
तपः स्वधर्मवर्तित्वं मनसो दमनं दमः
क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वं हीरकार्यनिवर्तनम् !!
अर्थ- अपने धर्म ( कर्त्तव्य ) में लगे रहना ही तपस्या है। मन को वश में रखना ही दमन है। सुख-दुःख, लाभ-हानि में एकसमान भाव रखना ही क्षमा है। न करने योग्य कार्य को त्याग देना ही लज्जा है!
अपि मेरुसमं प्राज्ञमपि शुरमपि स्थिरम् |
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमम् ||
अर्थात:- भले ही कोई व्यक्ति मेरु पर्वत की तरह स्थिर, चतुर, बहादुर दिमाग का हो लालच उसे पल भर में घास की तरह खत्म कर सकता है।
यदी स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किञ्चित्समाचरेत् |
तत्सर्वमाचरेद्युक्तो यत्र वाऽस्य रमेन्मनः ||
अर्थात:- गुरु के आश्रम में गुरु पत्नी आदी और उनके अधीन मृत्यु शूद्र भी श्रेष्ठकर्म करते हों, वे बी ब्रह्मचारी को अवश्य करने चाहिए, शास्त्रीय कर्म वे ही आचरण योग्य है, जिनमें उनका मन रूचि रखता हो।
एकादशम् मनोज्ञयम् स्वगुणेनोभयात्मकम् |
यञ्स्मिजिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ ||
अर्थात:- मन अपने गुणों के प्रभाव से ग्यारहवीं उभयात्मक अर्थात ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भी है, इसीलिए मन के जीत लेने पर ये दोनों ज्ञान व कर्मेन्द्रियां स्वमेव विजित हो जाती है।
मृगाः मृगैः संगमुपव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरंगास्तुरंगैः |
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधयः सुधीभिः समानशीलव्यसनेष सख्यम् ||
अर्थात:- हिरण हिरण का अनुरण करता है, गाय गाय का अनुरण करती है, घोड़ा घोड़े का अनुरण करता है, मूर्ख का अनुरण करता है और बुद्धिमान का अनुरण करता है। मित्रता समान गुण वालों में ही होती है।
शतेषु जायते शूरः सहस्त्रेषु च पण्डितः |
वक्ता दशसहस्त्रेष दाता भवति वान वा ||
अर्थात:- सौ लोगों में एक शूर पैदा होता है, हजार लोगों में एक पण्डित पैदा होता है, दस हजार लोगों में एक वक्ता पैदा होता है और दाता कोई बिरला ही पैदा होता है।