कर्णवेध-संस्कार उपनयन के बाद ही कर देना चाहिए | इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16वे माह तक अथवा 3, 5 आदि विषम वर्षो में या कुल की परंपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है | इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है | मान्यता यह भी है कि सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज संपन्न बनाती है | बालिकाओ के आभूषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरूप एक सशक्त माध्यम भी है |
हमारे शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है | ब्राह्मण और वैश्य का कर्णवेध चांदी की सुई से, शूद्र का लोहे की सुई से तथा क्षत्रिय और संपन्न पुरुषो का सोने की सुई से करने का विधान है |

कर्णवेध-संस्कार व्दिजो ( ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य ) का साही के कांटे से भी करने का विधान है | शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओ का पूजन करने के पश्चात सूर्य के सम्मुख बालक या बालिका के कानो को मंत्र द्वारा अभिमंत्रित करना चाहिए-

इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाए कान में बाद में सुई से छेद करें | उनमें कुंडल आदि पहनाये | बालिका के पहले बायें कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बायें नाक में भी छेद करके आभूषण पहनाने का विधान है | मस्तिष्क के दोनों भागो को विद्धुत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है | नाम में नथुनी पहनने से नासिका-संबंधी रोग नहीं होते और सर्दी-खासी में राहत मिलती है | कानो में सोने की बालिया या झुमके आदि पहनने से स्त्रियों में मासिकधर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया रोग में भी लाभ मिलता है |