मनु महाराज का वचन है –

अर्थात पहला जन्म माता के पेट से होता है और दूसरा यज्ञोपवीत धारण करने से होता है | माता के गर्भ से जो जन्म होता है, उस पर जन्म-जन्मांतरों के संस्कार हावी रहते है | यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा बुरे संस्कारों का शमन करके अच्छे संस्कारों को स्थायी बनाया जाता है | इसी को व्दिज अर्थात् दूर्सा जन्म कहते है | ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनो इसीलिए व्दिजाति कहे जाते है | मनु महाराज के अनुसार यज्ञोपवीत-संस्कार हुए बिना व्दिज किसी कर्म का अधिकारी नहीं होता|
यज्ञोपवीत-संस्कार होने के बाद ही बालक को धार्मिक कार्य करने का अधिकार मिलता है | व्यक्ति को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाना ही यज्ञोपवीत है | यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है- नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यो को अपने कंधो पर उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करना और परमात्मा को प्राप्त करना |

पदमपुराण कौशल कांड में लिखा है कि करोणों जन्मो के ज्ञान-अज्ञान में किये हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने हो जाते है |
पारस्करगृहसूत्र 2/2/7 में लिखा है, जिस प्रकार इंद्र को ब्रहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था, उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और संपत्ति की वृद्धी के लिए यज्ञो पहनना चाहिए | यज्ञोपवीत धारण करने से शुद्ध चरित्र और कर्तव्यपालन की प्रेरणा मिलती है | इसके धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पा लेते है | यानि मनुष्यत्व से देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है |
ब्रह्मोपनिषद यज्ञोपवीत धारण ऐ का मंत्र इस प्रकार है-

अर्थात् यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है | यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बंधनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज को बढाता है |
जो व्दिजाति अपने बालको का यज्ञोपवीत-संस्कार नहीं करते, वे अपने पुरोहित के साथ निश्चित ही नरक में जाते है, ऐसा नारदसंहिता मे लिखा है | इसमें यह भी लिखा है कि यज्ञोपवीतरहित व्दिज के हाथ का दिया हुआ चरणामृत मदिरा के तुल्य और तुलसीपत्र कर्पट के सामान है | उसका हुआ पिंडदान उसके पिता मुख में काकविष्ठा के सामान है |
वेदांत रामायण में लिखा है कि जो व्दिजाति यज्ञोपवीत-संस्कार हुए बिना मंद बुद्धि से मंत्र और पूजा-पाठ आदि करते हैं, उनका जप निष्फल है और वह फल हानिप्रद होता है |