मनोवैज्ञानीकों का कहना है कि आस्था एवं भावना को उभारने के लिए व्यक्ति को मूर्ति प्रतीक के लिए चाहिए | आराध्य की मूर्ति की पूजा करके मनुष्य उसके साठ मनोवैज्ञानिक संबंध स्थापित करता है | साधक जब तक मन को वश में कर स्थिर नहीं कर लेता, तब तक उसे पूजा का पूर्ण लाभ नहीं मिलता, इसीलिए मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है | इसमें वह असीम सत्ता के दर्शन करना चाहता है और अपनी धार्मिक भावना को विकसित करना चाहता है | भगवान् की भव्यमूर्ति के दर्शन कर हर्द्य में उनके गुणों का स्मरण होता है और मन को एकाग्र करने में आसानी होती है | जब भगवान् की मूर्ति हर्द्य में अंकित होकर विराजमान हो जाती है तो फिर किसी मूर्ति की आवश्यकता शेष नहीं रहा जाती | इसी तरह मूर्तिपूजा साकार से निराकार की और ले जाने का एक साधन है |

जो व्यक्ति अल्पबुद्धि के कारण निराकार ईश्वर का चिंतन नहीं कर पाते है, उन साधको के लिए मूर्तिपूजा उपयोगी है | उससे उनकी मानसिक उन्नति भी होती है | प्रत्येक मूर्ति में जो-जो शक्तियां निहित होती है, उनका चिंतन करने से दिव्यगुण मनुष्य में अपने-आप विकसित होने लगते है | हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने देवी-देवताओ की मूर्तियों में ईश्वर की हर गुप्तशक्ति को प्रतीकों के माध्यम से प्रकट किया है |
उल्लेखनीय है की भगवान् की प्रतिमा में शक्ति का अनिष्ठांन किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है | अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है – ‘हे भगवान्’! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइए | आपका यह शरीर पत्थर की बनी मूर्ति हो जाये |