देशभक्ति पर सर्वश्रेष्ठ कविताएँ | Best Poems on Patriotism in Hindi 

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दोस्तों, आज इस पोस्ट में Patriotic Poems in Hindi का संकलन किया है। आप इन desh bhakti poem in hindi को देशभक्ति के किसी भी कार्यक्रम में कविता वचन के लिए प्रयोग कर सकते हैं।

हम उम्मीद करते हैं कि आपको यह देशभक्ति पर कविताएं (Desh Bhakti Kavita in Hindi) पसंद आएगी।

अगर आपमें देश भक्ति जाग उठी है और आप Patriotic Poems in Hindi पढ़ना चाहते है तो इस आर्टिकल में करीब 40 से ज्यादा देश भक्ति से सराबोर कबिताओं का संग्रह दिया है|

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा (झंडा गीत) देश भक्ति कविता By श्याम लाल गुप्त

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।

सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाला,

वीरों को हरषाने वाला,
मातृभूमि का तन-मन सारा।। झंडा…।

स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में,

कांपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जाए भय संकट सारा।। झंडा…।

इस झंडे के नीचे निर्भय,
लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय,

बोलें भारत माता की जय,
स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा।। झंडा…।

आओ! प्यारे वीरो, आओ।
देश-धर्म पर बलि-बलि जाओ,

एक साथ सब मिलकर गाओ,
प्यारा भारत देश हमारा।। झंडा…।

इसकी शान न जाने पाए,
चाहे जान भले ही जाए,

विश्व-विजय करके दिखलाएं,
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।। झंडा…।

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।

प्यारा हिंदुस्तान है (डॉ. गणेशदत्त सारस्वत)

अमरपुरी से भी बढ़कर के जिसका गौरव-गान है-
तीन लोक से न्यारा अपना प्यारा हिंदुस्तान है।
गंगा, यमुना सरस्वती से सिंचित जो गत-क्लेश है।
सजला, सफला, शस्य-श्यामला जिसकी धरा विशेष है।
ज्ञान-रश्मि जिसने बिखेर कर किया विश्व-कल्याण है-
सतत-सत्य-रत, धर्म-प्राण वह अपना भारत देश है।

यहीं मिला आकार ‘ज्ञेय’ को मिली नई सौग़ात है-
इसके ‘दर्शन’ का प्रकाश ही युग के लिए विहान है।

वेदों के मंत्रों से गुंजित स्वर जिसका निर्भ्रांत है।
प्रज्ञा की गरिमा से दीपित जग-जीवन अक्लांत है।
अंधकार में डूबी संसृति को दी जिसने दृष्टि है-
तपोभूमि वह जहाँ कर्म की सरिता बहती शांत है।
इसकी संस्कृति शुभ्र, न आक्षेपों से धूमिल कभी हुई-
अति उदात्त आदर्शों की निधियों से यह धनवान है।।

योग-भोग के बीच बना संतुलन जहाँ निष्काम है।
जिस धरती की आध्यात्मिकता, का शुचि रूप ललाम है।
निस्पृह स्वर गीता-गायक के गूँज रहें अब भी जहाँ-
कोटि-कोटि उस जन्मभूमि को श्रद्धावनत प्रणाम है।
यहाँ नीति-निर्देशक तत्वों की सत्ता महनीय है-
ऋषि-मुनियों का देश अमर यह भारतवर्ष महान है।

क्षमा, दया, धृति के पोषण का इसी भूमि को श्रेय है।
सात्विकता की मूर्ति मनोरम इसकी गाथा गेय है।
बल-विक्रम का सिंधु कि जिसके चरणों पर है लोटता-
स्वर्गादपि गरीयसी जननी अपराजिता अजेय है।
समता, ममता और एकता का पावन उद्गम यह है
देवोपम जन-जन है इसका हर पत्थर भगवान है।

-डॉ. गणेशदत्त सारस्वत

आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ | प्रदीप | 15th August Poems

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झाँकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
वंदे मातरम …

उत्तर में रखवाली करता पर्वतराज विराट है
दक्षिण में चरणों को धोता सागर का सम्राट है
जमुना जी के तट को देखो गंगा का ये घाट है
बाट-बाट पे हाट-हाट में यहाँ निराला ठाठ है
देखो ये तस्वीरें अपने गौरव की अभिमान की,
इस मिट्टी से …

ये है अपना राजपूताना नाज़ इसे तलवारों पे
इसने सारा जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे
ये प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पे
कूद पड़ी थी यहाँ हज़ारों पद्‍मिनियाँ अंगारों पे
बोल रही है कण कण से कुरबानी राजस्थान की
इस मिट्टी से …

देखो मुल्क मराठों का ये यहाँ शिवाजी डोला था
मुग़लों की ताकत को जिसने तलवारों पे तोला था
हर पावत पे आग लगी थी हर पत्थर एक शोला था
बोली हर-हर महादेव की बच्चा-बच्चा बोला था
यहाँ शिवाजी ने रखी थी लाज हमारी शान की
इस मिट्टी से …

जलियाँ वाला बाग ये देखो यहाँ चली थी गोलियाँ
ये मत पूछो किसने खेली यहाँ खून की होलियाँ
एक तरफ़ बंदूकें दन दन एक तरफ़ थी टोलियाँ
मरनेवाले बोल रहे थे इनक़लाब की बोलियाँ
यहाँ लगा दी बहनों ने भी बाजी अपनी जान की
इस मिट्टी से …

ये देखो बंगाल यहाँ का हर चप्पा हरियाला है
यहाँ का बच्चा-बच्चा अपने देश पे मरनेवाला है
ढाला है इसको बिजली ने भूचालों ने पाला है
मुट्ठी में तूफ़ान बंधा है और प्राण में ज्वाला है
जन्मभूमि है यही हमारे वीर सुभाष महान की
इस मिट्टी से …

प्रदीप

नया दौर | यह देश है वीर जवानों का | साहिर लुधियानवी

ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का
इस देश का यारों क्या कहना, ये देश है दुनिया का गहना

यहाँ चौड़ी छाती वीरों की, यहाँ भोली शक्लें हीरों की
यहाँ गाते हैं राँझे मस्ती में, मचती में धूमें बस्ती में

पेड़ों में बहारें झूलों की, राहों में कतारें फूलों की
यहाँ हँसता है सावन बालों में, खिलती हैं कलियाँ गालों में

कहीं दंगल शोख जवानों के, कहीं करतब तीर कमानों के
यहाँ नित नित मेले सजते हैं, नित ढोल और ताशे बजते हैं

दिलबर के लिये दिलदार हैं हम, दुश्मन के लिये तलवार हैं हम
मैदां में अगर हम डट जाएं, मुश्किल है कि पीछे हट जाएं

    

मातृभूमि देशभक्ति कविता | मैथिलीशरण गुप्त

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?
पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥
निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥
सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

हमें मिली आज़ादी (सजीवन मयंक)

आज तिरंगा फहराता है अपनी पूरी शान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।
आज़ादी के लिए हमारी लंबी चली लड़ाई थी।
लाखों लोगों ने प्राणों से कीमत बड़ी चुकाई थी।।
व्यापारी बनकर आए और छल से हम पर राज किया।
हमको आपस में लड़वाने की नीति अपनाई थी।।

हमने अपना गौरव पाया, अपने स्वाभिमान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।

गांधी, तिलक, सुभाष, जवाहर का प्यारा यह देश है।
जियो और जीने दो का सबको देता संदेश है।।
प्रहरी बनकर खड़ा हिमालय जिसके उत्तर द्वार पर।
हिंद महासागर दक्षिण में इसके लिए विशेष है।।

लगी गूँजने दसों दिशाएँ वीरों के यशगान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।

हमें हमारी मातृभूमि से इतना मिला दुलार है।
उसके आँचल की छैयाँ से छोटा ये संसार है।।
हम न कभी हिंसा के आगे अपना शीश झुकाएँगे।
सच पूछो तो पूरा विश्व हमारा ही परिवार है।।

विश्वशांति की चली हवाएँ अपने हिंदुस्तान से।
हमें मिली आज़ादी वीर शहीदों के बलिदान से।।

-सजीवन मयंक

हैफ़ जिस पे कि हम तैयार थे मर जाने को | राम प्रसाद बिस्मिल | Poem on Swatantrata in Hindi

हैफ़ जिस पे कि हम तैयार थे मर जाने को,
यकायक हमसे छुड़ाया उसी काशाने को।
आसमां क्या यहां बाक़ी था ग़ज़ब ढाने को?
क्या कोई और बहाना न था तरसाने को?

फिर न गुलशन में हमें लाएगा सैयाद कभी,
क्यों सुनेगा तू हमारी कोई फरियाद कभी,
याद आएगा किसे ये दिले-नाशाद कभी,
हम कि इस बाग़ में थे, कै़द से आज़ाद कभी,
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को!

दिल फ़िदा करते हैं, कुर्बान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है, वो माता की नज़र करते हैं,
ख़ाना वीरान कहां, देखिए घर करते हैं,
अब रहा अहले-वतन, हम तो सफ़र करते हैं,
जा के आबाद करेंगे किसी विराने को!

देखिए कब यह असीराने मुसीबत छूटें,
मादरे-हिंद के अब भाग खुलें या फूटें,
देश-सेवक सभी अब जेल में मूंजे कूटें,
आप यहां ऐश से दिन-रात बहारें लूटें,
क्यों न तरजीह दें, इस जीने से मर जाने को!

कोई माता की उमीदों पे न डाले पानी,
ज़िंदगी भर को हमें भेज दे काले पानी,
मुंह में जल्लाद, हुए जाते हैं छाले पानी,
आबे-खंजर को पिला करके दुआ ले पानी,
भर न क्यों पाए हम, इस उम्र के पैमाने को!

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर,
हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सह-सहकर,
वक़्ते-रुख़सत उन्हें इतना ही न आए कहकर,
गोद में आंसू कभी टपके जो रुख़ से बहकर,
तिफ़्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को!

देश-सेवा ही का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की क़समें,
सरफ़रोशी की, अदा होती हैं यो ही रस्में,
भाई ख़ंजर से गले मिलते हैं सब आपस में,
बहने तैयार चिताओं में हैं जल जाने को!

नौजवानो, जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले-भटके,
आपके अजबे-बदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद चाक हो, माता का कलेजा फट के,
पर न माथे पे शिकन आए, क़सम खाने को!

अपनी क़िस्मत में अज़ल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था, मिहन रक्खा था, ग़म रक्खा था,
किसको परवाह थी, और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-गुरबत में क़दम रखा था,
दूर तक यादे-वतन आई थी समझाने को!

अपना कुछ ग़म नहीं लेकिन ये ख़याल आता है,
मादरे हिंद पे कब से ये ज़वाल आता है,
देशी आज़ादी का कब हिंद में साल आता है,
क़ौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है,
मुंतज़िर रहते हैं हम ख़ाक में मिल जाने को!

मैक़दा किसका है, ये जामो-सबू किसका है?
वार किसका है मेरी जां, यह गुलू किसका है?
जो बहे क़ौम की ख़ातिर वो लहू किसका है?
आसमां साफ़ बता दे, तू अदू किसका है?
क्यों नये रंग बदलता है ये तड़पाने को!

दर्दमंदों से मुसीबत की हलावत पूछो,
मरने वालों से ज़रा लुत्फ़े-शहादत पूछो,
चश्मे-मुश्ताक़ से कुछ दीद की हसरत पूछो,
जां निसारों से ज़रा उनकी हक़ीक़त पूछो,
सोज़ कहते हैं किसे, पूछो तो परवाने को!

बात सच है कि इस बात की पीछे ठानें,
देश के वास्ते कुरबान करें सब जानें,
लाख समझाए कोई, एक न उसकी मानें,
कहते हैं, ख़ून से मत अपना गिरेबां सानें,
नासेह, आग लगे तेरे इस समझाने को!

न मयस्सर हुआ राहत में कभी मेल हमें,
जान पर खेल के भाया न कोई खेल हमें,
एक दिन को भी न मंजूर हुई बेल हमें,
याद आएगी अलीपुर की बहुत जेल हमें,
लोग तो भूल ही जाएंगे इस अफ़साने को!

अब तो हम डाल चुके अपने गले में झोली,
एक होती है फ़कीरों की हमेशा बोली,
ख़ून से फाग रचाएगी हमारी टोली,
जब से बंगाल में खेले हैं कन्हैया होली,
कोई उस दिन से नहीं पूछता बरसाने को!

नौजवानो, यही मौक़ा है, उठो, खुल खेलो,
खि़दमते क़ौम में जो आए बला, तुम झेलो,
देश के सदके में माता को जवानी दे दो,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं, ले लो,
देखें कौन आता है, इर्शाद बजा लाने को!राम

प्रसाद बिस्मिल

आज़ादी | राम प्रसाद बिस्मिल | Desh Bhakti Kavita in Hindi

इलाही ख़ैर! वो हरदम नई बेदाद करते हैं,
हमें तोहमत लगाते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।

कभी आज़ाद करते हैं, कभी बेदाद करते हैं।
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं।

असीराने-क़फ़स से काश, यह सैयाद कह देता,
रहो आज़ाद होकर, हम तुम्हें आज़ाद करते हैं।

रहा करता है अहले-ग़म को क्या-क्या इंतज़ार इसका,
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं।

यह कह-कहकर बसर की, उम्र हमने कै़दे-उल्फ़त मंे,
वो अब आज़ाद करते हैं, वो अब आज़ाद करते हैं।

सितम ऐसा नहीं देखा, जफ़ा ऐसी नहीं देखी,
वो चुप रहने को कहते हैं, जो हम फ़रियाद करते हैं।

यह बात अच्छी नहीं होती, यह बात अच्छी नहीं करते,
हमें बेकस समझकर आप क्यों बरबाद करते हैं?

कोई बिस्मिल बनाता है, जो मक़तल में हमंे ‘बिस्मिल’,
तो हम डरकर दबी आवाज़ से फ़रियाद करते हैं।

चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन !
नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन !

शान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण,
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण !
आम्र-मौर लाओ हे ,कदली स्तम्भ बनाओ,
पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ ,
जय भारत गाओ, स्वतन्त्र भारत गाओ !
उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज हिमाँचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल !
लहर-लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल
जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल !

धन्य आज का मुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,
भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल !
तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !
राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन !
स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवगण!
लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!

एकता की पुकार | अज्ञात रचनाकार | 15th August Poems

कृष्ण या करीम की कुदरत अलग कोई नहीं,
अल्लाह या ईश्वर, तेरी सूरत अलग कोई नहीं।

पान गंगा-जल करो, या आबे ज़म ज़म को पियो,
जल तत्व इनमें एक है, रंगत अलग कोई नहीं।

महादेव तो मंदिर में हैं, और मुस्तफ़ा मस्जिद में,
है पुरान-कुरान की आयत अलग कोई नहीं।

राम या रहमान हो, एक सीप के मोती हैं दो,
मुल्ला-पुजारी की है इबादत अलग कोई नहीं।

नरक या दोज़ख़ बुरे हैं, पापियों के वास्ते,
हिंदुओं के स्वर्ग से जन्नत अलग कोई नहीं।

हिंदू, मुस्लिम, पारसी, ईसाई, यहूदी, क्रिश्चियन,
एक पिता के पुत्र हैं, माता अलग कोई नहीं।

झांसी की रानी | सुभद्राकुमारी चौहान | Patriotic Poems in Hindi by Subhadra Kumari Chauhan

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

सुभद्राकुमारी चौहान

देश हमारा | मनमोहन | देशभक्ति कविता

देश हमारा कितना प्यारा
बुश की भी आँखों का तारा
 
डण्डा उनका मूँछें अपनी
कैसा अच्छा मिला सहारा
 
मूँछें ऊँची रहें हमारी
डण्डा ऊँचा रहे तुम्हारा
 
ना फिर कोई आँख उठाए
ना फिर कोई आफ़त आए
 
बम से अपने बच्चे खेलें
दुनिया को हाथों में ले लें
 
भूख ग़रीबी और बेकारी
ख़ाली -पीली बातें सारी
 
देश-वेश और जनता-वनता
इन सबसे कुछ काम न बनता
 
ज्यों-ज्यों बिजिनिस को चमकाएँ
महाशक्ति हम बनते जाएँ
 
हम ही क्यों अमरीका जाएँ
अमरीका को भारत लाएँ
 
झुमका ,घुँघटा,कंगना,बिन्दिया
नबर वन हो अपना इण्डिया
 
हाई लिविंग एण्ड सिम्पिल थिंकिंग
यही है अपना मोटो डार्लिंग
 
मुसलमान को दूर भगाएँ
कम्युनिस्ट से छुट्टी पाएँ
 
अच्छे हिन्दू बस बच जाएँ
बाक़ी सारे भाड़ में जाएँ ।

मेरा वतन वही है | इक़बाल | देश-भक्ति कविताएँ

चिश्ती ने जिस ज़मीं पे पैग़ामे हक़ सुनाया,
नानक ने जिस चमन में बदहत का गीत गाया,
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
जिसने हेजाजियों से दश्ते अरब छुड़ाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥

सारे जहाँ को जिसने इल्मो-हुनर दिया था,
यूनानियों को जिसने हैरान कर दिया था,
मिट्टी को जिसकी हक़ ने ज़र का असर दिया था
तुर्कों का जिसने दामन हीरों से भर दिया था,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥

टूटे थे जो सितारे फ़ारस के आसमां से,
फिर ताब दे के जिसने चमकाए कहकशां से,
बदहत की लय सुनी थी दुनिया ने जिस मकां से,
मीरे-अरब को आई ठण्डी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥

बंदे किलीम जिसके, परबत जहाँ के सीना,
नूहे-नबी का ठहरा, आकर जहाँ सफ़ीना,
रफ़अत है जिस ज़मीं को, बामे-फलक़ का ज़ीना,
जन्नत की ज़िन्दगी है, जिसकी फ़िज़ा में जीना,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥

गौतम का जो वतन है, जापान का हरम है,
ईसा के आशिक़ों को मिस्ले-यरूशलम है,
मदफ़ून जिस ज़मीं में इस्लाम का हरम है,
हर फूल जिस चमन का, फिरदौस है, इरम है,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥

तराना-ए-बिस्मिल (राम प्रसाद बिस्मिल)

बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।

लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।

खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।

कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।

यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी से।

-राम प्रसाद बिस्मिल

Swadesh Desh Bhakti Poem in Hindi

भारत की आरती (शमशेर बहादुर सिंह)

भारत की आरती
देश-देश की स्वतंत्रता देवी
आज अमित प्रेम से उतारती।

निकटपूर्व, पूर्व, पूर्व-दक्षिण में
जन-गण-मन इस अपूर्व शुभ क्षण में
गाते हों घर में हों या रण में
भारत की लोकतंत्र भारती।

गर्व आज करता है एशिया
अरब, चीन, मिस्र, हिंद-एशिया
उत्तर की लोक संघ शक्तियां
युग-युग की आशाएं वारतीं।

साम्राज्य पूंजी का क्षत होवे
ऊंच-नीच का विधान नत होवे
साधिकार जनता उन्नत होवे
जो समाजवाद जय पुकारती।

जन का विश्वास ही हिमालय है
भारत का जन-मन ही गंगा है
हिन्द महासागर लोकाशय है
यही शक्ति सत्य को उभारती।

यह किसान कमकर की भूमि है
पावन बलिदानों की भूमि है
भव के अरमानों की भूमि है
मानव इतिहास को संवारती।

-शमशेर बहादुर सिंह

देश भक्ति कविताएं

जिसे देश से प्यार नहीं हैं | श्रीकृष्ण सरल | Desh Bhakti Poem in Hindi for class 1,2,3,4,5

जिसे देश से प्यार नहीं हैं
जीने का अधिकार नहीं हैं।

जीने को तो पशु भी जीते
अपना पेट भरा करते हैं
कुछ दिन इस दुनिया में रह कर
वे अन्तत: मरा करते हैं।
ऐसे जीवन और मरण को,
होता यह संसार नहीं है
जीने का अधिकार नहीं हैं।

मानव वह है स्वयं जिए जो
और दूसरों को जीने दे,
जीवन-रस जो खुद पीता वह
उसे दूसरों को पीने दे।
साथ नहीं दे जो औरों का
क्या वह जीवन भार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।

साँसें गिनने को आगे भी
साँसों का उपयोग करो कुछ
काम आ सके जो समाज के
तुम ऐसा उद्योग करो कुछ।
क्या उसको सरिता कह सकते
जिसम़ें बहती धार नहीं है?
जीने का अधिकार नहीं हैं।

भारत की आरती | शमशेर बहादुर सिंह | Small Poem on Azadi In Hindi

भारत की आरती
देश-देश की स्वतंत्रता देवी
आज अमित प्रेम से उतारती ।

निकटपूर्व, पूर्व, पूर्व-दक्षिण में
जन-गण-मन इस अपूर्व शुभ क्षण में
गाते हों घर में हों या रण में
भारत की लोकतंत्र भारती।

गर्व आज करता है एशिया
अरब, चीन, मिस्र, हिंद-एशिया
उत्तर की लोक संघ शक्तियां
युग-युग की आशाएं वारतीं।

साम्राज्य पूंजी का क्षत होवे
ऊंच-नीच का विधान नत होवे
साधिकार जनता उन्नत होवे
जो समाजवाद जय पुकारती।

जन का विश्वास ही हिमालय है
भारत का जन-मन ही गंगा है
हिन्द महासागर लोकाशय है
यही शक्ति सत्य को उभारती।

यह किसान कमकर की भूमि है
पावन बलिदानों की भूमि है
भव के अरमानों की भूमि है
मानव इतिहास को संवारती।

मेरा देश | महेन्द्र भटनागर | Desh Bhakti kavita

प्रत्येक दिशा में आशातीत

प्रगति के लम्बे डग भरता, ‘वामन-पग’ धरता

मेरा देश निरन्तर बढ़ता है !

पूर्ण विश्व-मानव की

सुखी सुसंस्कृत अभिनव मानव की मूर्ति

अहर्निश गढ़ता है !

मेरा देश निरन्तर बढ़ता है !


प्रतिक्षण सजग

महत् आदर्शों के प्रति,

बुद्धि-सिद्ध

विश्वासों के प्रति।


मेरा देश

सकल राष्ट्रों के मध्य अनेकों

सहयोगों के,

पारस्परिक हितों के,

आधार सुदृढ़

निर्मित करता है !

तम डूबे

कितने-कितने क्षितिजों को

मैत्री की नूतन परिभाषा से

आलोकित करता है !

समता की

अनदेखी

अगणित राहों को

उद्घाटित करता है !


उसने तोड़ दिये हैं सारे

जाति-भेद औ वर्ण-भेद,

नस्ल भेद औ’ धर्म-भेद।


सच्चे अर्थों में

मेरा देश

मनुज-गौरव को

सर्वोपरि स्थापित करता है !

मृतवत्

मानव-गरिमा को

जन-जन में

जीवित करता है !


मेरा देश

प्रथमतः

भिन्न-भिन्न

शासन-पद्धित वाले राष्ट्रों को

अपनाता है !

शांति-प्रेम का

अप्रतिम मंत्र

जगत में गुँजित कर

भीषण युद्धों की

ज्वाला से आहत

मानवता को

आस्थावान बनाता है !

संदेहों के

गहरे कुहरे को चीर

गगन में

निष्ठा-श्रद्धा के

सूर्य उगाता है !


उन्नति के

सोपानों पर चढ़ता

मेरा देश,

निरन्तर

बहुविध

बढ़ता मेरा देश !


प्रतिश्रुत है —

नष्ट विषमता करने,

निर्धनता हरने !

जन-मंगलकारी

गंगा घर-घर पहुँचाने !

होठों पर

मुसकानों के फूल खिलाने,

जीवन को

जीने योग्य बनाने !

Desh Bhakti Poems in Hindi by Harivansh Rai Bachchan

स्वतन्त्रता दिवस (हरिवंशराय बच्चन)

आज से आजाद अपना देश फिर से!

ध्यान बापू का प्रथम मैंने किया है,
क्योंकि मुर्दों में उन्होंने भर दिया है
नव्य जीवन का नया उन्मेष फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!

दासता की रात में जो खो गये थे,
भूल अपना पंथ, अपने को गये थे,
वे लगे पहचानने निज वेश फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!

स्वप्न जो लेकर चले उतरा अधूरा,
एक दिन होगा, मुझे विश्वास, पूरा,
शेष से मिल जाएगा अवशेष फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!

देश तो क्या, एक दुनिया चाहते हम,
आज बँट-बँट कर मनुज की जाति निर्मम,
विश्व हमसे ले नया संदेश फिर से!
आज से आजाद अपना देश फिर से!

Desh bhakti kavitayen in hindi

आज़ादों का गीत (हरिवंशराय बच्चन)

हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजतीं गुड़ियाँ,
इनसे आतंकित करने की बीत गई घड़ियाँ,

इनसे सज-धज बैठा करते
जो, हैं कठपुतले।
हमने तोड़ अभी फैंकी हैं
बेड़ी-हथकड़ियाँ,

परम्परा पुरखों की हमने
जाग्रत की फिर से,
उठा शीश पर हमने रक्खा
हिम किरीट उज्जवल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सज सिंहासन,
जो बैठा करते थे उनका
खत्म हुआ शासन,

उनका वह सामान अजायब-
घर की अब शोभा,
उनका वह इतिहास महज
इतिहासों का वर्णन,

नहीं जिसे छू कभी सकेंगे
शाह लुटेरे भी,
तख़्त हमारा भारत माँ की
गोदी का शाद्वल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजवा छाते
जो अपने सिर पर तनवाते
थे, अब शरमाते,

फूल-कली बरसाने वाली
दूर गई दुनिया,
वज्रों के वाहन अम्बर में,
निर्भय घहराते,

इन्द्रायुध भी एक बार जो
हिम्मत से औड़े,
छ्त्र हमारा निर्मित करते
साठ कोटि करतल।
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
का हाथों में दंड,
चिन्ह कभी का अधिकारों का
अब केवल पाखंड,

समझ गई अब सारी जगती
क्या सिंगार, क्या सत्य,
कर्मठ हाथों के अन्दर ही
बसता तेज प्रचंड,

जिधर उठेगा महा सृष्टि
होगी या महा प्रलय,
विकल हमारे राज दंड में
साठ कोटि भुजबल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

-हरिवंशराय बच्चन

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Most Popular Desh Bhakti Poem

शहीद की माँ (हरिवंशराय बच्चन)

इसी घर से
एक दिन
शहीद का जनाज़ा निकला था,
तिरंगे में लिपटा,
हज़ारों की भीड़ में।
काँधा देने की होड़ में
सैकड़ो के कुर्ते फटे थे,
पुट्ठे छिले थे।
भारत माता की जय,
इंकलाब ज़िन्दाबाद,
अंग्रेजी सरकार मुर्दाबाद
के नारों में शहीद की माँ का रोदन
डूब गया था।
उसके आँसुओ की लड़ी
फूल, खील, बताशों की झडी में
छिप गई थी,
जनता चिल्लाई थी-
तेरा नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा।
गली किसी गर्व से
दिप गई थी।

इसी घर से
तीस बरस बाद
शहीद की माँ का जनाजा निकला है,
तिरंगे में लिपटा नहीं,
(क्योंकि वह ख़ास-ख़ास
लोगों के लिये विहित है)
केवल चार काँधों पर
राम नाम सत्य है
गोपाल नाम सत्य है
के पुराने नारों पर;
चर्चा है, बुढिया बे-सहारा थी,
जीवन के कष्टों से मुक्त हुई,
गली किसी राहत से
छुई छुई।

-हरिवंशराय बच्चन

छोटे बच्चों के लिए देशभक्ति कविता (Desh Bhakti Short Poem in Hindi)

घायल हिन्दुस्तान (हरिवंशराय बच्चन)

मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।

दबी हुई दुबकी बैठी हैं
कलरवकारी चार दिशाएँ,
ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं
नभ की चिर गतिमान हवाएँ,

अंबर के आनन के ऊपर
एक मुर्दनी-सी छाई है,

एक उदासी में डूबी हैं
तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;
आंधी के पहले देखा है
कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?

इस निश्चलता के अंदर से
ही भीषण तूफान उठेगा।
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।

-हरिवंशराय बच्चन

छोटे बच्चों के लिए देशभक्ति कविता (Desh Bhakti Short Poem in Hindi)

घायल हिन्दुस्तान (हरिवंशराय बच्चन)

मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।

दबी हुई दुबकी बैठी हैं
कलरवकारी चार दिशाएँ,
ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं
नभ की चिर गतिमान हवाएँ,

अंबर के आनन के ऊपर
एक मुर्दनी-सी छाई है,

एक उदासी में डूबी हैं
तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;
आंधी के पहले देखा है
कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?

इस निश्चलता के अंदर से
ही भीषण तूफान उठेगा।
मुझको है विश्वास किसी दिन
घायल हिंदुस्तान उठेगा।

-हरिवंशराय बच्चन

देशभक्ति पर सर्वश्रेष्ठ कविताएँ

गणतंत्र दिवस (हरिवंशराय बच्चन)

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,
जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,
जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,
और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,
घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,
“जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।”
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,
किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,
आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,
उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।
हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,
उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

-हरिवंशराय बच्चन

Desh Bhakti Poems in Hindi by Ramdhari Singh Dinkar

15 august poem in hindi

किसको नमन करूँ मैं भारत (रामधारी सिंह दिनकर)

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं?
मेरे प्यारे देश! देह या मन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत? किसको नमन करूँ मैं?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं?

तू वह, नर ने जिसे बहुत ऊँचा चढ़कर पाया था,
तू वह, जो संदेश भूमि को अम्बर से आया था।
तू वह, जिसका ध्यान आज भी मन सुरभित करता है,
थकी हुई आत्मा में उड़ने की उमंग भरता है।
गन्ध -निकेतन इस अदृश्य उपवन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं?

वहाँ नहीं तू जहाँ जनों से ही मनुजों को भय है,
सब को सब से त्रास सदा सब पर सब का संशय है।
जहाँ स्नेह के सहज स्रोत से हटे हुए जनगण हैं,
झंडों या नारों के नीचे बँटे हुए जनगण हैं।
कैसे इस कुत्सित, विभक्त जीवन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत! किसको नमन करूँ मैं?

तू तो है वह लोक जहाँ उन्मुक्त मनुज का मन है,
समरसता को लिये प्रवाहित शीत-स्निग्ध जीवन है।
जहाँ पहुँच मानते नहीं नर-नारी दिग्बन्धन को,
आत्म-रूप देखते प्रेम में भरकर निखिल भुवन को।
कहीं खोज इस रुचिर स्वप्न पावन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत! किसको नमन करूँ मैं?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं!

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं!

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं!

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं!

-रामधारी सिंह दिनकर

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सिपाही (रामधारी सिंह दिनकर)

वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।

मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है?
इतिहासों में अमर रहूँ, है ऐसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भूलते लगती फिर किसको देरी?

जग भूले, पर मुझे एक, बस, सेवा-धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसीमें इसे मिला मिट जाना है।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आकर तुम्हें जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर-बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय, किन्तु, क्या स्वर्ग-बीच रुक पाऊँगा?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊँगा।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूँगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बनकर,
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊँगा मौन वृन्त पर सोच, न जाने, क्या मन में?

तप्त वेग धमनी का बनकर कभी संग मैं हो लूँगा,
कभी चरण- तल की मिट्टी में छिपकर जय-जय बोलूँगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचायेगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रृंग पर, वह पहचान न पायेगी।

‘न्योछावर में एक फूल’, पर, जग की ऐसी रीत कहाँ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?
कविते! देखो विजन विपिन में वन्य-कुसुम का मुरझाना,
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू-कण बरसाना।

-रामधारी सिंह दिनकर

Desh Bhakti Poems in Hindi by Rabindranath Tagore

poem on swatantrata in hindi

जन गण मन (रवींद्र नाथ ठाकुर)

जन गण मन अधि नायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा,
द्राविण उत्कल बंग।

विंध्य हिमाचल यमुना गंगा,
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे,
तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जय-गाथा।

जन-गण-मंगलदायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता।
जय हे! जय हे! जय हे!
जय जय जय जय हे!

– रविन्द्र नाथ ठाकुर

चल तू अकेला (रवींद्र नाथ ठाकुर)

तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे पाश..
ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज तू अकेला!
जब हर कोई वापस जाय..
ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय..
कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय…

-रवींद्र नाथ ठाकुर

Hindi Desh Bhakti Kavita

नहीं मांगता (रवींद्र नाथ ठाकुर)

नहीं मांगता, प्रभु, विपत्ति से,
मुझे बचाओ, त्राण करो
विपदा में निर्भीक रहूँ मैं,
इतना, हे भगवान, करो।
नहीं मांगता दुःख हटाओ
व्यथित ह्रदय का ताप मिटाओ
दुखों को मैं आप जीत लूँ
ऐसी शक्ति प्रदान करो
विपदा में निर्भीक रहूँ मैं,
इतना, हे भगवान,करो।

कोई जब न मदद को आये
मेरी हिम्मत टूट न जाये।
जग जब धोखे पर धोखा दे
और चोट पर चोट लगाये –
अपने मन में हार न मानूं,
ऐसा, नाथ, विधान करो।
विपदा में निर्भीक रहूँ मैं,
इतना, हे भगवान,करो।
नहीं माँगता हूँ, प्रभु, मेरी
जीवन नैया पार करो
पार उतर जाऊँ अपने बल
इतना, हे करतार, करो।
नहीं मांगता हाथ बटाओ
मेरे सिर का बोझ घटाओ
आप बोझ अपना संभाल लूँ
ऐसा बल-संचार करो।
विपदा में निर्भीक रहूँ मैं,
इतना, हे भगवान, करो।

सुख के दिन में शीश नवाकर
तुमको आराधूँ, करूणाकर।
औ’ विपत्ति के अन्धकार में,
जगत हँसे जब मुझे रुलाकर–
तुम पर करने लगूँ न संशय,
यह विनती स्वीकार करो।
विपदा में निर्भीक रहूँ मैं,
इतना, हे भगवान, करो।

-रवींद्र नाथ ठाकुर

वंदे मातरम् कविता देश-भक्ति कविता

छीन सकती है नहीं सरकार वंदे मातरम्,
हम ग़रीबों के गले का हार वंदे मातरम्।

सरचढ़ों के सर में चक्कर उस समय आता ज़रूर,
कान में पहुंची जहां झनकार वंदे मातरम्।

जेल में चक्की घसीटे, भूख से हो मर रहा,
उस समय भी बक रहा बेज़ार वंदे मातरम्।

मौत के मुंह में खड़ा है, कह रहा जल्लाद से,
भोंक दे सीने में वह तलवार, वंदे मातरम्।

डाक्टरों ने नब्ज़ देखी, सर हिलाकर कह दिया,
हो गया इसको तो यह आज़ार वंदे मातरम्।

ईद, होली, दशहरा, शबरात से भी सौ गुना,
है हमारा लाड़ला त्योहार वंदे मातरम्।

ज़ालिमों का जुल्म भी काफूर-सा उड़ जाएगा,
फैसला होगा सरे दरबार वंदे मातरम्।

ललकार | वहीद | Bharat Desh Bhakti Kavita

तूने गर ठान लिया जुल्म ही करने के लिए,
हम भी तैयार हैं अब जी से गुज़रने के लिए।

अब नहीं हिंद वह जिसको दबाए बैठे थे,
जाग उठे नींद से, हां हम तो सम्हलने के लिए।

हाय, भारत को किया तूने है ग़ारत कैसा!
लूटकर छोड़ दिया हमको तो मरने के लिए।

भीख मंगवाई है दर-दर हमंे भूखा मारा,
हिंद का माल विलायत को ही भरने के लिए।

लाजपत, गांधी व शौकत का बजाकर डंका,
सीना खोले हैं खड़े गोलियां खाने के लिए।

तोप चरख़े की बनाकर तुम्हें मारेंगे हम,
अब न छोड़ेंगे तुम्हें फिर से उभरने के लिए।

दास, शौकत व मुहम्मद को बनाकर कै़दी,
छेड़ा है हिंद को अब सामना करने के लिए।

बच्चे से बूढ़े तलक आज हैं तैयार सभी,
डाल दो हथकड़ियां जेल को भरने के लिए।

उठो, आओ, चलो, अब फौज में भर्ती हो लो!
भारत-भूमि का भी तो कुछ काम करने के लिए।

ख़ां साहब और राय बहादुर की पदवी लेकर,
जी-हुजूरी और गुलामी ही है करने के लिए।

ईश्वर से प्रार्थना करता है यही आज ‘वहीद’,
शक्ति मिल जाए हमें देश पे मरने के लिए।

यह है भारत देश हमारा | सुब्रह्मण्यम भारती | Desh Bhakti par adharit Kavita Hindi Mein

चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है।
जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है।
नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऎसी पावन कल-कल धारा?

सम्मानित जो सकल विश्व में, महिमा जिनकी बहुत रही है
अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है।
गाएँगे यश ह्म सब इसका, यह है स्वर्णिम देश हमारा,
आगे कौन जगत में हमसे, यह है भारत देश हमारा।

यह है भारत देश हमारा, महारथी कई हुए जहाँ पर,
यह है देश मही का स्वर्णिम, ऋषियों ने तप किए जहाँ पर,
यह है देश जहाँ नारद के, गूँजे मधुमय गान कभी थे,
यह है देश जहाँ पर बनते, सर्वोत्तम सामान सभी थे।

यह है देश हमारा भारत, पूर्ण ज्ञान का शुभ्र निकेतन,
यह है देश जहाँ पर बरसी, बुद्धदेव की करुणा चेतन,
है महान, अति भव्य पुरातन, गूँजेगा यह गान हमारा,
है क्या हम-सा कोई जग में, यह है भारत देश हमारा।

विघ्नों का दल चढ़ आए तो, उन्हें देख भयभीत न होंगे,
अब न रहेंगे दलित-दीन हम, कहीं किसी से हीन न होंगे,
क्षुद्र स्वार्थ की ख़ातिर हम तो, कभी न ओछे कर्म करेंगे,
पुण्यभूमि यह भारत माता, जग की हम तो भीख न लेंगे।

मिसरी-मधु-मेवा-फल सारे, देती हमको सदा यही है,
कदली, चावल, अन्न विविध अरु क्षीर सुधामय लुटा रही है,
आर्य-भूमि उत्कर्षमयी यह, गूँजेगा यह गान हमारा,
कौन करेगा समता इसकी, महिमामय यह देश हमारा।

सुब्रह्मण्यम भारती

प्यारे भारत देश | माखनलाल चतुर्वेदी | देशभक्ति कविता 2020

प्यारे भारत देश
गगन-गगन तेरा यश फहरा
पवन-पवन तेरा बल गहरा
क्षिति-जल-नभ पर डाल हिंडोले
चरण-चरण संचरण सुनहरा

ओ ऋषियों के त्वेष
प्यारे भारत देश।।

वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी
प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जागी
उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक
मानो आँसू आये बलि-महमानों तक

सुख कर जग के क्लेश
प्यारे भारत देश।।

तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे!
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी
बातें करे दिनेश
प्यारे भारत देश।।

जपी-तपी, संन्यासी, कर्षक कृष्ण रंग में डूबे
हम सब एक, अनेक रूप में, क्या उभरे क्या ऊबे
सजग एशिया की सीमा में रहता केद नहीं
काले गोरे रंग-बिरंगे हममें भेद नहीं

श्रम के भाग्य निवेश
प्यारे भारत देश।।

वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,

जय-जय अमित अशेष
प्यारे भारत देश।।

हिंदू-मुस्लिम एकता | Desh Bhakti Kavita | अज्ञात रचनाकार

क्या हुआ गर मर गए अपने वतन के वास्ते,
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते।

तरस आता है तुम्हारे हाल पे, ऐ हिंदियो,
ग़ैर के मोहताज हो अपने कफ़न के वास्ते।

देखते हैं आज जिसको शाद है, आज़ाद है,
क्या तुम्हीं पैदा हुए रंजो-मिहन के वास्ते?

दर्द से अब बिलबिलाने का ज़माना हो चुका,
फ़िक्र करनी चाहिए मर्जे़ कुहन के वास्ते।

हिंदुओं को चाहिए अब क़स्द काबे का करें,
और फिर मुस्लिम बढ़ें गंगो-जमन के वास्ते!

पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस | सुमित्रानंदन पंत | Desh Bhakti Poem in Hindi for class 6,7,8,9,10

नव स्वतंत्र भारत, हो जग-हित ज्योति जागरण,
नव प्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण !
नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,
शान्ति प्रीति सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक-जागरण!
नव संस्कृति आलोक करे, जन भारत वितरण!
नव-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन !

लीडर | अपनी आज़ादी को हम हर्गिज़ मिटा सकते नहीं | शकील बदायूनी

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं

हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है
सैंकड़ों कुर्बानियाँ देकर ये दौलत पाई है
मुस्कुरा कर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां
कितने वीरानो से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है
ख़ाक में हम अपनी इज्ज़़त को मिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं…

क्या चलेगी ज़ुल्म की अहले-वफ़ा के सामने
आ नहीं सकता कोई शोला हवा के सामने
लाख फ़ौजें ले के आए अमन का दुश्मन कोई
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने
हम वो पत्थर हैं जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं…

वक़्त की आवाज़ के हम साथ चलते जाएंगे
हर क़दम पर ज़िन्दगी का रुख बदलते जाएंगे
’गर वतन में भी मिलेगा कोई गद्दारे वतन
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे
एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं…

हम वतन के नौजवाँ है हम से जो टकरायेगा
वो हमारी ठोकरों से ख़ाक में मिल जायेगा
वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम
आसमां पर ये तिरंगा उम्र भर लहरायेगा
जो सबक बापू ने सिखलाया भुला सकते नहीं
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं…

आगे बढ़ेंगे | अली सरदार जाफ़री | Desh Bhakti Poem in Hindi for Students

वो बिजली-सी चमकी, वो टूटा सितारा,
वो शोला-सा लपका, वो तड़पा शरारा,
जुनूने-बग़ावत ने दिल को उभारा,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

गरजती हैं तोपें, गरजने दो इनको
दुहुल बज रहे हैं, तो बजने दो इनको,
जो हथियार सजते हैं, सजने दो इनको
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

कुदालों के फल, दोस्तों, तेज़ कर लो,
मुहब्बत के साग़र को लबरेज़ कर लो,
ज़रा और हिम्मत को महमेज़ कर लो,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

विज़ारत की मंज़िल हमारी नहीं है,
ये आंधी है, बादे-बहारी नहीं है,
जिरह हमने तन से उतारी नहीं है,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

हुकूमत के पिंदार को तोड़ना है,
असीरो-गिरफ़्तार को छोड़ना है,
जमाने की रफ्तार को मोड़ना है,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

चट्टानों में राहें बनानी पड़ंेगी,
अभी कितनी कड़ियां उठानी पड़ेंगी,
हज़ारों कमानें झुकानी पड़ेंगी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

हदें हो चुकीं ख़त्म बीमो-रजा की,
मुसाफ़त से अब अज़्मे-सब्रआज़मां की,
ज़माने के माथे पे है ताबनाकी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

उफ़क़ के किनारे हुए हैं गुलाबी,
सहर की निगाहों में हैं बर्क़ताबी,
क़दम चूमने आई है कामयाबी,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

मसाइब की दुनिया को पामाल करके,
जवानी के शोलों में तप के, निखर के,
ज़रा नज़्मे-गीती से ऊंचे उभर के,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

महकते हुए मर्ग़ज़ारों से आगे,
लचकते हुए आबशारों से आगे,
बहिश्ते-बरीं की बहारों से आगे,
बढ़ेंगे, अभी और आगे बढ़ेंगे!

हम उम्मीद करते हैं कि आपको यह देशभक्ति की कविताएं (Desh Bhakti Poem in Hindi) पसंद आई होगी। इन्हें आगे शेयर जरूर करें और हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं कि आपको यह कविता का संग्रह  (Desh Bhakti Kavita Sangrah) कैसा लगा।

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Anurag Pathak
Anurag Pathak

इनका नाम अनुराग पाठक है| इन्होने बीकॉम और फाइनेंस में एमबीए किया हुआ है| वर्तमान में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं| अपने मूल विषय के अलावा धर्म, राजनीती, इतिहास और अन्य विषयों में रूचि है| इसी तरह के विषयों पर लिखने के लिए viralfactsindia.com की शुरुआत की और यह प्रयास लगातार जारी है और हिंदी पाठकों के लिए सटीक और विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराते रहेंगे

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